आध्यात्मिक आकाश की तेजोमय किरणों (ब्रह्मज्योति) में असंख्य लोक तैर रहे हैं। यह ब्रह्मज्योति परम धाम कृष्णलोक से उद्भूत होती है और आनन्दमय तथा चिन्मय लोक, जो भौतिक नहीं हैं, इसी ज्योति में तैरते रहते हैं। भूमिका 10
Bhagavad Gita In HINDI श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप (भूमिका 10)
भगवान् कहते हैं- न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः। यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम। जो इस आध्यात्मिक आकाश तक पहुँच जाता है, उसे इस भौतिक आकाश में लौटने की आवश्यकता नहीं रह जाती। भौतिक आकाश में यदि हम सर्वोच्च लोक (ब्रह्मलोक) को भी प्राप्त कर लें, चन्द्रलोक का तो कहना ही क्या, तो वहाँ भी वही जीवन की परिस्थितियाँ- जन्म, मृत्यु, व्याधि तथा जरा-होंगी। भौतिक ब्रह्माण्ड का कोई भी लोक संसार के इन चार नियमों से मुक्त नहीं है।
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Bhagavad Gita In HINDI श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप (भूमिका 10)
सारे जीव एक लोक से दूसरे लोक में विचरण कर रहे हैं, किन्तु ऐसा नहीं है कि हम यान्त्रिक व्यवस्था करके जिस लोक में जाना चाहें, वहाँ चले जायें। यदि हम किसी अन्य लोक में जाना चाहते हैं तो उसकी विधि होती है। इसका भी उल्लेख हुआ है- यान्ति देवन्नता देवान् पितृन् यान्ति पितृव्रताः ।
यदि हम एक लोक से दूसरे लोक में विचरण करना चाहते हैं तो उसके लिए किसी यांत्रिक व्यवस्था की आवश्यकता नहीं है। गीता का उपदेश है- यान्ति देवव्रता देवान्। चन्द्र, सूर्य तथा उच्चतर लोक स्वर्गलोक कहलाते हैं। लोकों की तीन विभिन्न स्थितियाँ हैं- उच्चतर, मध्य तथा निम्न तर लोक। पृथ्वी मध्य लोक में आती है।
भगवद्गीता बताती है कि किस प्रकार अति सरल सूत्र-यान्ति देवव्रता देवान्- द्वारा उच्चतर लोकों यानी देवलोकों तक जाया जा सकता है। मनुष्य को केवल उस लोक के विशेष देवता की पूजा करने की आवश्यकता है और इस तरह चन्द्रमा, सूर्य या अन्य किसी भी उच्चतर लोक को जाया जा सकता है।
Bhagavad Gita In HINDI श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप (भूमिका 10)
फिर भी भगवद्गीता हमें इस भौतिक ब्रह्माण्ड के किसी लोक में जाने की सलाह नहीं देती, क्योंकि चाहे हम किसी यान्त्रिक युक्ति से चालीस हजार वर्षों (और कौन इतने समय तक जीवित रहेगा?) तक यात्रा करके सर्वोच्च लोक, ब्रह्मलोक, क्यों न चले जाँय, किन्तु फिर भी वहाँ हमें जन्म, मृत्यु, जरा तथा व्याधि जैसी भौतिक असुविधाओं से मुक्ति नहीं मिल सकेगी।
लेकिन जो परम लोक, कृष्णलोक, या आध्यात्मिक आकाश के किसी भी अन्य लोक में पहुँचना चाहता है, उसे वहाँ ये असुविधाएँ नहीं होंगी। आध्यात्मिक आकाश में जितने भी लोक हैं, उनमें गोलोक वृन्दावन नामक लोक सर्वश्रेष्ठ है, जो भगवान् श्रीकृष्ण का आदि धाम है।
यह सारी जानकारी भगवद्गीता में दी हुई है और इसमें उपदेश दिया गया है कि किस प्रकार हम इस भौतिक जगत को छोड़ें और आध्यात्मिक आकाश में वास्तविक आनन्दमय जीवन की शुरुआत कर सकते हैं।
Bhagavad Gita In HINDI श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप (भूमिका 10)
भगवद्गीता के पन्द्रहवें अध्याय में भौतिक जगत का वास्तविक चित्रण हुआ है। कहा गया है:
ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् ।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ॥
यहाँ पर भौतिक जगत का वर्णन उस वृक्ष के रूप में हुआ है, जिसकी जड़ें ऊर्ध्वमुखी (ऊपर की ओर) हैं और शाखाएँ अधोमुखी (नीचे की ओर) हैं। हमें ऐसे वृक्ष का अनुभव है, जिसकी जड़ें ऊर्ध्वमुखी हों: यदि कोई नदी या जलाशय के किनारे खड़ा होकर जल में वृक्षों का प्रतिबिम्ब देखे तो उसे सारे वृक्ष उल्टे दिखेंगे। शाखाएँ नीचे की और और जड़ें ऊपर की ओर दिखेंगी। इसी प्रकार यह भौतिक जगत भी आध्यात्मिक जगत का प्रतिबिम्ब है। यह भौतिक जगत वास्तविकता का प्रतिबिम्ब (छाया) मात्र है। प्रतिबिम्ब में कोई वास्तविकता या सार नहीं होता, लेकिन प्रतिबिम्ब से हम यह समझ लेते हैं कि वस्तु तथा वास्तविकता हैं। यद्यपि मरुस्थल में जल नहीं होता, लेकिन मृग-मरीचिका बताती है कि जल जैसी वस्तु होती है। भौतिक जगत में न तो जल है, न तो सुख है, लेकिन आध्यात्मिक जगत में वास्तविक सुख- रूपी असली जल है।
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Bhagavad Gita In HINDI श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप (भूमिका 10)
भगवद्गीता में (१५.५) भगवान् ने सुझाव दिया है कि हम निम्नलिखित प्रकार से आध्यात्मिक जगत की प्राप्ति कर सकते हैं:
निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः ।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत् ॥
पदमव्ययं अर्थात् सनातन राज्य (धाम) को वही प्राप्त होता है, जो निर्मान-मोहा है। इसका अर्थ क्या हुआ? हम उपाधियों के पीछे पड़े रहते हैं। कोई महाशय बनना चाहता है, कोई प्रभु बनना चाहता है, तो कोई राष्ट्रपति या धनवान या राजा या कुछ और बनना चाहता है।
परन्तु जब तक हम इन उपाधियों से चिपके रहते हैं, तब तक हम शरीर के प्रति आसक्त बने रहते हैं, क्योंकि ये उपाधियाँ शरीर से सम्बन्धित होती हैं। लेकिन हम शरीर नहीं हैं और इसकी अनुभूति होना ही आध्यात्मिक अनुभूति की प्रथम अवस्था है। हम प्रकृति के तीन गुणों से जुड़े हुए हैं, किन्तु भगवान् की भक्तिमय सेवा द्वारा हमें इनसे छूटना होगा।
यदि हम भगवान् की भक्तिमय सेवा के प्रति आसक्त नहीं होते तो प्रकृति के गुणों से छूट पाना दुष्कर है। उपाधियाँ तथा आसक्तियाँ हमारी कामवासना-इच्छा तथा प्रकृति पर प्रभुत्व जताने की चाह के कारण हैं। जब तक हम प्रकृति पर प्रभुत्व जताने की प्रवृत्ति को नहीं त्यागते, तब तक भगवान् के धाम, सनातन-धाम, को वापस जाने की कोई सम्भावना नहीं है।
उस शाश्वत अविनाशी-धाम को वही प्राप्त होता है जो झूठे भौतिक भोगों के आकर्षणों द्वारा मोहग्रस्त नहीं होता, जो भगवान की सेवा में स्थित रहता है। ऐसा व्यक्ति सहज ही परम धाम को प्राप्त होता है। TO BE CONTINUE….