भगवद्गीता में (८.६) उस सामान्य सिद्धान्त की भी व्याख्या है, जो मृत्यु के समय ब्रह्म का चिन्तन करने से आध्यात्मिक धाम में प्रवेश करना सुगम बनाता है : भूमिका 12
यं यं वापि स्मरन् भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् ।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ॥
Bhagavad Gita In HINDI श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप (भूमिका 12)
“अपने इस शरीर को त्यागते समय मनुष्य जिस भाव का स्मरण करता है, वह अगले जन्म में उस भाव को निश्चित रूप से प्राप्त होता है।” अब सर्वप्रथम हमें यह समझना चाहिए कि भौतिक प्रकृति परमेश्वर की एक शक्ति का प्रदर्शन है। विष्णु पुराण में (६.७.६१) भगवान् की समग्र शक्तियों का वर्णन हुआ है :
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विष्णुशक्तिः परा प्रोक्ता क्षेत्रज्ञाख्या तथा परा ।
अविद्याकर्मसंज्ञान्या तृतीया शक्तिरिष्यते ॥
परमेश्वर की शक्तियाँ विविध तथा असंख्य हैं और वे हमारी बुद्धि के परे हैं, लेकिन बड़े-बड़े विद्वान् मुनियों या मुक्तात्माओं ने इन शक्तियों का अध्ययन करके इन्हें तीन भागों में बाँटा है। सारी शक्तियाँ विष्णु शक्ति हैं, अर्थात् वे भगवान् विष्णु की विभिन्न शक्तियाँ हैं। पहली शक्ति परा या आध्यात्मिक है। जीव भी परा शक्ति है जैसा कि पहले कहा जा चुका है। अन्य शक्तियाँ या भौतिक शक्तियाँ तामसी हैं। मृत्यु के समय हम या तो इस संसार की अपरा शक्ति में रहते हैं या फिर आध्यात्मिक जगत की शक्ति में चले जाते हैं।
Bhagavad Gita In HINDI श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप (भूमिका 12)
अतएव भगवद्गीता में (८.६) कहा गया है:
यं यं वापि स्मरन् भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् ।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ॥
अपने इस शरीर को त्यागते समय मनुष्य जिस-जिस भाव का स्मरण करता है, वह अगले जन्म में उस-उस भाव को निश्चित रूप से प्राप्त होता है।
जीवन में हम या तो भौतिक या आध्यात्मिक शक्ति के विषय में सोचने के आदी हैं। हम अपने विचारों को भौतिक शक्ति से आध्यात्मिक शक्ति में किस प्रकार ले जा सकते हैं? ऐसे बहुत से साहित्य हैं- यथा समाचारपत्र, पत्रिकाएँ, उपन्यास आदि, जो हमारे विचारों को भौतिक शक्ति से भर देते हैं। इस समय हमें ऐसे साहित्य में लगे अपने चिन्तन को वैदिक साहित्य की ओर मोड़ना है। अतएव महर्षियों ने अनेक वैदिक ग्रंथ लिखे हैं, यथा पुराण। ये पुराण काल्पनिक नहीं हैं, अपितु ऐतिहासिक लेख हैं। चैतन्य चरितामृत में (मध्य २०.१२२) निम्नलिखित कथन है :
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मायामुग्ध जीवेर नाहि स्वतः कृष्णज्ञान।
जीवेरे कृपाय कैला कृष्ण वेद-पुराण ॥
भुलक्कड़ जीवों या बद्धजीवों ने परमेश्वर के साथ अपने सम्बन्ध को भुला दिया है और वे सब भौतिक कार्यों के विषय में सोचने में मग्न रहते हैं। इनकी चिन्तन शक्ति को आध्यात्मिक आकाश की ओर मोड़ने के लिए ही कृष्णद्वैपायन व्यास ने प्रचुर वैदिक साहित्य प्रदान किया है। सर्वप्रथम उन्होंने वेद के चार विभाग किये, फिर उन्होंने उनकी व्याख्या पुराणों में की और अल्पज्ञों के लिए उन्होंने महाभारत की रचना की। महाभारत में ही भगवद्गीता दी हुई है।
तत्पश्चात् वैदिक साहित्य का सार वेदान्त-सूत्र में दिया गया है और भावी पथ-प्रदर्शन के लिए उन्होंने वेदान्त- सूत्र का सहज भाष्य भी दिया जो श्रीमद्भागवतम् कहलाता है। हमें इन वैदिक ग्रंथों के अध्ययन में अपना चित्त लगाना चाहिए। जिस प्रकार भौतिकवादी लोग नाना प्रकार के समाचार पत्र, पत्रिकाएँ तथा अन्य संसारी साहित्य को पढ़ने में ध्यान लगाते हैं, उसी तरह हमें भी व्यासदेव द्वारा प्रदत्त साहित्य के अध्ययन में ध्यान लगान चाहिए। इस प्रकार हम मृत्यु के समय परमेश्वर का स्मरण कर सकेंगे। भगवान् द्वारा सुझाया गया यही एकमात्र उपाय है और वे इसके फल का विश्वास दिलाते हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं है।
Bhagavad Gita In HINDI श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप (भूमिका 12)
तस्मात् सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च ।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयः ॥
“इसलिए, हे अर्जुन ! तुम कृष्ण के रूप में मेरा सदैव चिन्तन करो और साथ ही अपने युद्ध कर्म करते रहो। अपने कर्मों को मुझे अर्पित करके तथा अपने मन एवं बुद्धि को मुझ पर स्थिर करके तुम मुझे निश्चित रूप से प्राप्त करोगे।” (भगवद्गीता ८.७)।
वे अर्जुन से उसके कर्म (वृत्ति, पेशा) को त्याग कर केवल अपना स्मरण करने के लिए नहीं कहते। भगवान् कभी भी कोई अव्यावहारिक बात का परामर्श नहीं देते। इस जगत में शरीर के पालन हेतु मनुष्य को कर्म करना होता है।
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Bhagavad Gita In HINDI श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप (भूमिका 12)
कर्म के अनुसार मानव समाज चार वर्षों में विभाजित है- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र ब्राह्मण अथवा बुद्धिमान वर्ग एक प्रकार से कार्य करता है, क्षत्रिय या प्रशासक वर्ग दूसरी तरह से कार्य करता है। इसी प्रकार वणिक वर्ग तथा श्रमिक वर्ग भी अपने- अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं।
मानव समाज में चाहे कोई श्रमिक हो, वणिक हो, प्रशासक हो या कि किसान हो, या फिर चाहे वह सर्वोच्च वर्ग का तथा साहित्यिक हो, वैज्ञानिक हो या धर्मशास्त्रज्ञ हो, उसे अपने जीवनयापन के लिए कार्य करना होता है। अतएव भगवान् अर्जुन से कहते हैं कि उसे अपनी वृत्ति का त्याग नहीं करना है, अपितु वृत्ति में लगे रहकर कृष्ण का स्मरण करना चाहिए (मामनुस्मर)। यदि वह जीवन-संघर्ष करते हुए कृष्ण का स्मरण करने का अभ्यास नहीं करता तो वह मृत्यु के समय कृष्ण को स्मरण नहीं कर सकेगा। भगवान् चैतन्य भी यही परामर्श देते हैं।
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उनका कथन है- कीर्तनीयः सदा हरिः- मनुष्य को चाहिए कि भगवान् के नामों का सदैव उच्चारण करने का अभ्यास करे। भगवान् का नाम तथा भगवान् अभिन्न हैं। इसलिए अर्जुन को भगवान् की शिक्षा कि “मेरा स्मरण करो” तथा भगवान् चैतन्य का यह आदेश कि” भगवान् कृष्ण के नामों का निरन्तर कीर्तन करो” एक ही हैं।
इनमें कोई अन्तर नहीं है, क्योंकि कृष्ण तथा कृष्ण के नाम में कोई अन्तर नहीं है। चरम दशा में नाम तथा नामी में कोई अन्तर नहीं होता। अतएव हमें अपनी दिनचर्या को इस प्रकार ढालना होगा कि हम सदैव भगवान् के नामों का जप करते हुए चौबीसों घंटे उनका स्मरण करते रहें। TO BE CONTINUE….