भौतिक प्रकृति क्या है ? गीता में इसकी भी व्याख्या अपरा प्रकृति के रूप में हुई है। जीव को परा प्रकृति (उत्कृष्ट प्रकृति) कहा गया है। प्रकृति चाहे परा हो या अपरा, सदैव नियन्त्रण में रहती है। भूमिका 4
प्रकृति स्त्री-स्वरूपा है और वह भगवान् द्वारा उसी प्रकार नियन्त्रित होती है, जिस प्रकार पत्नी अपने पति द्वारा। प्रकृति सदैव अधीन रहती है, उस पर भगवान् का प्रभुत्व रहता है, क्योंकि भगवान् ही नियंत्रक हैं।
Bhagavad Gita In HINDI श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप (भूमिका 4)
जीव तथा भौतिक प्रकृति दोनों ही परमेश्वर द्वारा अधिशासित एवं नियन्त्रित होते हैं। गीता के अनुसार यद्यपि सारे जीव परमेश्वर के अंश हैं, लेकिन वे प्रकृति ही माने जाते हैं। इसका स्पष्ट उल्लेख भगवद्गीता के सातवें अध्याय में हुआ है।
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृति विद्धि मे पराम। जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्- यह भौतिक प्रकृति मेरी अपरा प्रकृति है, लेकिन इससे भी परे दूसरी प्रकृति है- जीव भूताम् अर्थात् जीव है।
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भौतिक प्रकृति तीन गुणों से निर्मित है- सतोगुण, रजोगुण तथा तमोगुण। इन गुणों के ऊपर नित्य काल है और इन प्रकृति के गुणों तथा नित्य काल के नियंत्रण व संयोग से अनेक कार्यकलाप होते हैं, जो कर्म कहलाते हैं। ये कार्यकलाप अनादि काल से चले आ रहे हैं और हम सभी अपने कार्यकलाप (कर्मों) के फलस्वरूप सुख या दुःखभोग रहे हैं।
उदाहरणार्थ, मान लें कि मैं व्यापारी हूँ और मैंने बुद्धि के बल पर कठोर श्रम किया है और बहुत सम्पत्ति संचित कर ली है। तब मैं सम्पत्ति के सुख का भोक्ता हूँ, किन्तु यदि मान लें कि व्यापार में हानि से मेरा सब धन जाता रहा तो मैं दुःखका भोक्ता हो जाता हूँ। इसी प्रकार जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हम अपने कर्म के फल का सुख भोगते हैं या उसका कष्ट उठाते हैं। यह कर्म कहलाता है।
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ईश्वर, जीव, प्रकृति, काल तथा कर्म इन सबकी व्याख्या भगवद्गीता में हुई है। इन पाँचों में से ईश्वर, जीव, प्रकृति तथा काल शाश्वत हैं। प्रकृति की अभिव्यक्ति अस्थायी हो सकती है, परन्तु यह मिथ्या नहीं है। कोई-कोई दार्शनिक कहते हैं कि प्रकृति की अभिव्यक्ति मिथ्या है लेकिन भगवद्गीता या वैष्णवों के दर्शन के अनुसार ऐसा नहीं है।
जगत की अभिव्यक्ति को मिथ्या नहीं माना जाता। इसे वास्तविक, किन्तु अस्थायी माना जाता है। यह उस बादल के सदृश है, जो आकाश में घूमता रहता है, या वर्षा ऋतु के आगमन के समान है, जो अन्न का पोषण करती है। ज्योंही वर्षा ऋतु समाप्त होती है और बादल चले जाते हैं, त्योंही वर्षा द्वारा पोषित सारी फसल सूख जाती है।
इसी प्रकार यह भौतिक अभिव्यक्ति एक निश्चित अन्तराल में होती है, कुछ काल तक ठहरती है और फिर लुप्त हो जाती है। प्रकृति इस रूप में कार्यशील है। लेकिन यह चक्र निरन्तर चलता रहता है। इसीलिए प्रकृति शाश्वत है, मिथ्या नहीं है। भगवान् इसे मेरी प्रकृति कहते हैं। यह भौतिक प्रकृति (अपरा प्रकृति) परमेश्वर की भिन्ना-शक्ति है।
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इसी प्रकार जीव भी परमेश्वर की शक्ति हैं, किन्तु वे विलग नहीं, अपितु भगवान् से नित्य-सम्बद्ध हैं। इस तरह भगवान्, जीव, प्रकृति तथा काल, ये सब परस्पर सम्बन्धित हैं और सभी शाश्वत हैं। लेकिन दूसरी वस्तु कर्म शाश्वत नहीं है। हाँ, कर्म के प्रभाव अत्यन्त पुरातन हो सकते हैं।
हम अनादि काल से अपने शुभ-अशुभ कर्मफलों को भोग रहे हैं, किन्तु साथ ही हम अपने कर्मों के फल को बदल भी सकते हैं और यह परिवर्तन हमारे ज्ञान की पूर्णता पर निर्भर करता है। हम विविध प्रकार के कर्मों में व्यस्त रहते हैं। निस्सन्देह हम यह नहीं जानते कि किस प्रकार के कर्म करने से हम कर्मफल से राहत प्राप्त कर सकते हैं। लेकिन भगवद्गीता में इसका भी वर्णन हुआ है।
ईश्वर अर्थात् परम ईश्वर की स्थिति परम चेतना स्वरूप है। जीव भी ईश्वर के अंश होने के कारण चेतन है। जीव तथा भौतिक प्रकृति दोनों को प्रकृति बताया गया है अर्थात् वे परमेश्वर की शक्ति हैं, किन्तु इन दोनों में से केवल जीव चेतन है, दूसरी प्रकृति चेतन नहीं है। यही अन्तर है।
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इसीलिए जीव प्रकृति परा या उत्कृष्ट कहलाती है, क्योंकि जीव, भगवान् जैसी चेतना से युक्त है। लेकिन भगवान् की चेतना परम है और किसी को यह नहीं कहना चाहिए कि जीव भी परम चेतन है। जीव कभी भी, यहाँ तक कि अपनी सिद्ध अवस्था में भी, परम चेतन नहीं हो सकता और यह सिद्धान्त भ्रामक है कि जीव परम चेतन हो सकता है। वह चेतन तो हो सकता है, लेकिन पूर्ण या परम चेतन नहीं।
जीव तथा ईश्वर का अन्तर भगवद्गीता के तेरहवें अध्याय में बताया जायेगा। ईश्वर क्षेत्रज्ञ व चेतन है, जैसा कि जीव भी है, लेकिन जीव केवल अपने शरीर के प्रति सचेत रहता है, जबकि भगवान् समस्त शरीरों के प्रति सचेत रहते हैं। चूंकि वे प्रत्येक जीव के हृदय में वास करते हैं, अतएव वे जीवविशेष की मानसिक गतिशीलता से परिचित रहते हैं।
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हमें यह नहीं भूलना चाहिए। यह भी बताया गया है कि परमात्मा प्रत्येक जीव के हृदय में ईश्वर या नियन्ता के रूप में वास कर रहे हैं और जैसा जीव चाहता है वैसा करने के लिए जीव को निर्देशित करते रहते हैं। जीव भूल जाता है कि उसे क्या करना है। पहले तो वह किसी एक विधि से कर्म करने का संकल्प करता है, लेकिन फिर वह अपने ही कर्म की क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं में उलझ जाता है।
एक प्रकार का शरीर त्यागने के बाद वह दूसरा शरीर ग्रहण करता है, जिस प्रकार हम वस्त्र, उतारते तथा पहनते रहते हैं। इस प्रकार जब आत्मा देहान्तरण कर जाता है, अतः उसे अपने विगत (पूर्वकृत्) कर्मों का फल भोगना पड़ता है। ये कार्यकलाप तभी बदल सकते हैं, जब जीव सतोगुण में स्थित हो और यह समझे कि उसे कौन से कर्म करने चाहिए।
यदि वह ऐसा करता है तो उसके विगत (पूर्वकृत्) कर्मों के सारे फल बदल जाते हैं। फलस्वरूप कर्म, शाश्वत नहीं हैं। इसीलिए हमने यह कहा है कि पाँचों (ईश्वर, जीव, प्रकृति, काल तथा कर्म) में से चार शाश्वत हैं, कर्म शाश्वत नहीं है। TO BE CONTINUE….