परम चेतन ईश्वर जीव से इस मामले में समान है- भगवान् तथा जीव दोनों की चेतनाएँ दिव्य हैं। यह चेतना पदार्थ के संयोग से उत्पन्न नहीं होती है। ऐसा सोचना भ्रान्तिमूलक है। भगवद्गीता इस सिद्धान्त को स्वीकार नहीं करती कि चेतना भौतिक संयोग की किन्हीं परिस्थितियों में उत्पन्न होती है। भूमिका 5
यह चेतना भौतिक परिस्थितियों के आवरण के कारण विकृत रूप से प्रतिबिम्बित हो सकती है जिस प्रकार रंगीन काँच से परावर्तित प्रकाश उसी रंग का प्रतीत होता है परन्तु भगवान् की चेतना भौतिकता से प्रभावित नहीं होती है।
Bhagavad Gita In HINDI श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप (भूमिका 5)
भगवान् कहते हैं- मयाध्यक्षेण प्रकृतिः। जब वे इस भौतिक जगत् में अवतरित होते हैं तो उनकी चेतना पर भौतिक प्रभाव नहीं पड़ता। यदि वे इस तरह प्रभावित होते तो दिव्य विषयों के सम्बन्ध में उस तरह बोलने के अधिकारी न होते जैसा कि भगवद्गीता में बोलते हैं। भौतिक कल्मष- ग्रस्त चेतना से मुक्त हुए बिना कोई दिव्य-जगत के विषय में कुछ नहीं कह सकता।
अतः भगवान् भौतिक दृष्टि से कलुषित (दूषित) नहीं हैं। परन्तु हमारी चेतना अभी भौतिक कल्मष से दूषित है। भगवद्गीता शिक्षा देती है कि हमें इस कलुषित चेतना को शुद्ध करना है। शुद्ध चेतना होने पर हमारे सारे कर्म ईश्वर की इच्छानुसार होंगे और इससे हम सुखी हो सकेंगे। ऐसा नहीं कि हमें अपने सारे कार्य बन्द कर देने चाहिए।
अपितु, हमें अपने कर्मों को शुद्ध करना चाहिए और शुध्द कर्म भक्ति कहलाते हैं। भक्ति में कर्म सामान्य कर्म प्रतीत होते हैं, किन्तु वे कलुषित नहीं होते। एक अज्ञानी व्यक्ति भक्त को सामान्य व्यक्ति की भाँति कर्म करते देख सकता है, किन्तु ऐसा मूर्ख यह नहीं समझता कि भक्त या भगवान् के कर्म अशुद्ध चेतना या पदार्थ से कलुषित नहीं होते।वे त्रिगुणातीत होते हैं। जो भी हो, हमें यह जान लेना चाहिए कि अभी हमारी चेतना कलुषित है।
Bhagavad Gita In HINDI श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप (भूमिका 5)
जब हम भौतिक दृष्टि से कलुषित होते हैं, तो हम बद्ध कहलाते हैं। मिध्या चेतना का प्राकट्य इसलिए होता है कि हम अपने-आपको प्रकृति का प्रतिफल (उत्पाद) मान बैठते हैं। यह मिथ्या अहंकार कहलाता है। जो व्यक्ति देहात्मबुद्धि में लीन रहता है, वह अपनी स्थिति (स्वरूप) को नहीं समझ पाता।
भगवद्गीता का प्रवचन देहात्मबुद्धि से मनुष्य को मुक्त करने के लिए ही हुआ था और भगवान् से यह सूचना प्राप्त करने के लिए ही अर्जुन ने अपने-आपको इस अवस्था में उपस्थित किया था। व्यक्ति को देहात्मबुद्धि से मुक्त होना चाहिए, अध्यात्मवादी के लिए प्रारम्भिक कर्म (कार्य) यही है। जो बंधनो से छूटना चाहता है, जो मुक्त होना चाहता है, उसे सर्वप्रथम यह जान लेना होगा कि वह यह शरीर नहीं है। मुक्ति का अर्थ है भौतिक चेतना से स्वतन्त्रता।
श्रीमद्भागवतम् में भी मुक्ति की परिभाषा दी गई है। मुक्तिर्हित्वान्यथारूपं स्वरूपेण व्यवस्थितिः- मुक्ति का अर्थ है इस भौतिक जगत की कलुषित चेतना से मुक्त होना और शुद्ध चेतना में स्थित होना। भगवद्गीता के सारे उपदेशों का मन्तव्य इसी शुद्ध चेतना को जागृत करना है। इसीलिए हम गीता के अन्त में कृष्ण को अर्जुन से यह प्रश्न करते पाते हैं कि वह विशुद्ध चेतना को प्राप्त हुआ या नहीं ? शुद्ध चेतना का अर्थ है भगवान् के आदेशानुसार कर्म करना।
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शुद्ध चेतना का यही सार है। भगवान् का अंश होने के कारण हममें चेतना पहले से ही रहती है, लेकिन हममें निकृष्ट गुणों द्वारा प्रभावित होने की प्रवृत्ति पाई जाती है। किन्तु भगवान् परमेश्वर होने के कारण कभी प्रभावित नहीं होते। परमेश्वर तथा क्षुद्र जीवों में यही अन्तर है।
यह चेतना क्या है? यह चेतना है “मैं हूँ”। तो फिर “मैं हूँ” क्या है? कलुषित चेतना में “मैं हूँ” का अर्थ है कि मैं सर्वेसर्वा हूँ, मैं ही भोक्ता हूँ। यह संसार चलायमान है, क्योंकि प्रत्येक जीव यही सोचता है कि वही इस भौतिक जगत का स्वामी तथा स्रष्टा है। भौतिक चेतना के दो मनोमय विभाग हैं।
एक के अनुसार मैं ही स्स्रष्टा हूँ और दूसरे के अनुसार मैं ही भोक्ता हूँ। लेकिन वास्तव में परमेश्वर स्रष्टा तथा भोक्ता दोनों है और परमेश्वर का अंश होने के कारण जीव न तो स्त्रष्टा है न ही भोक्ता, वह मात्र सहयोगी है। वह सृजित तथा भुक्त है। उदाहरणार्थ, मशीन का कोई एक पुर्जा सम्पूर्ण मशीन के साथ सहयोग करता है, इसी प्रकार शरीर का कोई एक अंग पूरे शरीर के साथ सहयोग करता है। हाथ, पाँव, आँखें आदि शरीर के अंग हैं, लेकिन ये वास्तविक भोक्ता नहीं हैं।
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Bhagavad Gita In HINDI श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप (भूमिका 5)
भोक्ता तो उदर (पेट) है। पाँव चलते हैं, हाथ भोजन देते हैं, दाँत चबाते हैं और शरीर के सारे अंग उदर को तुष्ट करने में लगे रहते हैं, क्योंकि उदर ही प्रधान कारक है, जो शरीर रूपी संगठन का पोषण करता है। अतएव सारी वस्तुएँ उदर को दी जाती हैं।
जिस प्रकार जड़ को सींच कर वृक्ष का पोषण किया जाता है, उसी तरह उदर का भरण करके शरीर का पोषण किया जाता है, क्योंकि यदि शरीर को स्वस्थ रखना है तो शरीर के सारे अंगों को उदरपूर्ति में सहयोग देना होगा। इसी प्रकार परमेश्वर ही भोक्ता तथा स्रष्टा हैं और हम उनके अधीनस्थ जीवात्माएँ उन्हें प्रसन्न रखने के निमित्त सहयोग करने के लिए हैं।
इस सहयोग से हमें लाभ पहुँचता है, ठीक वैसे ही जैसे उदर द्वारा गृहीत भोजन से शरीर के सारे अंगों को लाभ पहुँचता है। यदि हाथ की अँगुलियाँ यह सोचें कि वे उदर को भोजन न देकर स्वयं ग्रहण कर लें, तो उन्हें निराश होना पड़ेगा। सृजन तथा भोग के केन्द्रबिन्दु परमेश्वर हैं और सारे जीव उनके सहयोगी हैं।
सहयोग के द्वारा वे भोग करते हैं। यह सम्बन्ध स्वामी तथा दास जैसा है। यदि स्वामी पूर्णतया तुष्ट रहता है, तो दास भी तुष्ट रहता है। इसी प्रकार परमेश्वर को तुष्ट रखना चाहिए, यद्यपि जीवों में भी स्रष्टा बनने तथा भौतिक जगत का भोग करने की प्रवृत्ति होती है, क्योंकि इस दृश्य-जगत के स्त्रष्टा परमेश्वर में ये प्रवृत्तियाँ हैं। TO BE CONTINUE….