अतएव भगवद्गीता में हम पाएँगे कि परम पूर्ण में परम नियन्ता, नियन्त्रित जीव, दृश्य-जगत, शाश्चत काल तथा कर्म सन्निहित हैं और इन सबकी व्याख्या इस के मूल पाठ में की गई है। भूमिका 6
Bhagavad Gita In HINDI श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप (भूमिका 6)
ये सब मिलकर परम पूर्ण का निर्माण करते हैं और यही परम पूर्ण परम सत्य कहलाता है। यही परम पूर्ण तथा परम सत्य पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण हैं। सारी अभिव्यक्तियाँ उनकी विभिन्न शक्तियों के फलस्वरूप हैं। वे ही परम पूर्ण हैं।
भगवद्गीता में यह भी बताया गया है कि निर्विशेष ब्रह्म भी पूर्ण परम पुरुष के अधीन है (ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहम्)। ब्रह्मसूत्र में ब्रह्म की विशद व्याख्या, सूर्य की किरणों के रूप में की गई है। निर्विशेष ब्रह्म भगवान् का प्रभामय किरणसमूह है। निर्विशेष ब्रह्म पूर्ण ब्रह्म की अपूर्ण अनुभूति है और इसी तरह परमात्मा की धारणा भी है। पन्द्रहवें अध्याय में यह देखेंगे कि भगवान् पुरुषोत्तम इन दोनों निर्विशेष ब्रह्म तथा परमात्मा की आंशिक अनुभूति से बढ़कर हैं।
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भगवान् को सच्चिदानन्द विग्रह कहा जाता है। ब्रह्मसंहिता का शुभारम्भ इस प्रकार से होता है ईश्वरः परमः कृष्णः सच्चिदानन्द विग्रहः। अनादिरादिर्गोविन्दः सर्वकारणकारणम्। गोविन्द या कृष्ण सभी कारणों के कारण हैं। वे ही आदि कारण हैं और सत्, चित् तथा आनन्द के रूप हैं। निर्विशेष ब्रह्म उनके सत् (शाश्वत) स्वरूप की अनुभूति है, परमात्मा सत्- चित् (शाश्वत-ज्ञान) की अनुभूति है। परन्तु भगवान् कृष्ण समस्त दिव्य स्वरूपों की अनुभूति हैं-सत्-चित्-आनन्द के पूर्ण विग्रह में है।
अल्पज्ञानी लोग परम सत्य को निर्विशेष मानते हैं, लेकिन वे हैं दिव्य पुरुष और इसकी पुष्टि समस्त वैदिक ग्रंथों में हुई है। नित्यो नित्यानां चेतनश्चेतनानाम् (कठोपनिषद् २.२.१३)। जिस प्रकार हम सभी जीव हैं और हम सबकी अपनी- अपनी व्यष्टि सत्ता है, उसी प्रकार परम सत्य भी अन्ततः एक व्यक्ति हैं और भगवान् की अनुभूति उनके पूर्ण स्वरूप में समस्त दिव्य लक्षणों की ही अनुभूति है। यह पूर्णता रूपविहीन (निराकार) नहीं है। यदि वह निराकार है, या किसी अन्य वस्तु से घट कर है, तो वह सर्वथा पूर्ण नहीं हो सकता। जो सर्वथा पूर्ण है, उसे हमारे लिए अनुभवगम्य तथा अनुभवातीत हर वस्तुओं से युक्त होना चाहिए, अन्यथा वह पूर्ण नहीं हो सकता।
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पूर्ण भगवान् में अपार शक्तियाँ है (परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते)। कृष्ण किस प्रकार अपनी विभिन्न शक्तियों द्वारा कार्यशील हैं, इसकी भी व्याख्या भगवद्गीता में हुई है। यह दृश्य-जगत, या भौतिक जगत जिसमें हम रह रहें हैं, यह भी स्वयं में पूर्ण है, क्योंकि जिन चौबीस तत्त्वों से यह नश्वर ब्रह्माण्ड निर्मित है, वे सांख्य दर्शन के अनुसार इस ब्रह्माण्ड के पालन तथा धारण के लिए अपेक्षित संसाधनों से पूर्णतया समन्वित हैं। इसमें न तो कोई विजातीय तत्त्व है, न ही किसी की आवश्यकता है।
इस सृष्टि का अपना निजी नियत-काल है, जिसका निर्धारण परमेश्वर की शक्ति द्वारा हुआ है और जब यह काल पूर्ण हो जाता है, तो उस पूर्ण की पूर्ण व्यवस्था से इस क्षणभंगुर सृष्टि का विनाश हो जाता है। क्षुद्र जीवों के लिए यह सुविधा प्राप्त है कि पूर्ण की अनुभूति करें। सभी प्रकार की अपूर्णताओं का अनुभव पूर्ण विषयक ज्ञान की अपूर्णता के कारण है। इस प्रकार भगवद्गीता में वैदिक विद्या का पूर्ण ज्ञान पाया जाता है।
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सारा वैदिक ज्ञान अमोघ (अच्युत) है और हिन्दू इस ज्ञान को पूर्ण तथा अमोघ मानते हैं। उदाहरणार्थ, गोबर पशुमल है और स्मृति या वैदिक आदेश के अनुसार यदि कोई पशुमल का स्पर्श करता है, तो उसे शुद्ध होने के लिए स्नान करना पड़ता है। लेकिन वैदिक शास्त्रों में गोबर को पवित्र करनेवाला माना गया है। इसे विरोधाभास कहा जा सकता है, लेकिन यह मान्य है क्योंकि यह वैदिक आदेश है और इसमें सन्देह नहीं कि इसे स्वीकार करने पर किसी प्रकार की त्रुटि नहीं होगी। अब तो आधुनिक विज्ञान द्वारा यह सिद्ध किया जा चुका है कि गाय के गोबर में समस्त कीटाणुनाशक गुण पाये जाते हैं। अतएव वैदिक ज्ञान पूर्ण है, क्योंकि यह समस्त संशयों एवं त्रुटियों से परे है और भगवद्गीता समस्त वैदिक ज्ञान का सार है।
वैदिक ज्ञान शोध का विषय नहीं है। हमारा शोधकार्य अपूर्ण है, क्योंकि हम अपूर्ण इन्द्रियों के द्वारा शोध करते हैं। हमें पहले से चले आ रहे पूर्ण ज्ञान को परम्परा द्वारा स्वीकार करना होगा, जैसा कि भगवद्गीता में कहा गया है। हमें ज्ञान को परम्परा के उपयुक्त स्रोत से, ग्रहण करना होता है, जो परम्परा परम आध्यात्मिक गुरु साक्षात भगवान् से प्रारम्भ होती है और गुरु-शिष्यों की यह परम्परा आगे बढ़ती जाती है। छात्र के रूप में अर्जुन भगवान् कृष्ण से शिक्षा ग्रहण करता है और उनका विरोध किये बिना वह कृष्ण की सारी बातें स्वीकार कर लेता है।
Bhagavad Gita In HINDI श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप (भूमिका 6)
किसी को भगवद्गीता के एक अंश को स्वीकार करने और दूसरे अंश को अस्वीकार करने की अनुमति नहीं दी जाती। हमें भगवद्गीता को बिना किसी प्रकार की टीका टिप्पणी, बिना घटाए-बढ़ाए तथा विषय-वस्तु में बिना किसी मनोकल्पना के स्वीकार करना चाहिए। गीता को वैदिक ज्ञान की सर्वाधिक पूर्ण प्रस्तुति समझना चाहिए। वैदिक ज्ञान दिव्य स्रोतों से प्राप्त होता है और स्वयं भगवान् ने पहला प्रवचन किया था।
भगवान् द्वारा कहे गये शब्द अपौरुषेय कहलाते हैं, जिसका अर्थ है कि वे चार दोषों से युक्त संसारी व्यक्ति द्वारा कहे गये शब्दों से भिन्न होते हैं। संसारी पुरुष के दोष हैं- (१) वह त्रुटियाँ अवश्य करता है, (२) वह अनिवार्य रूप से मोहग्रस्त होता है, (३) उसमें अन्यों को धोखा देने की प्रवृत्ति होती है, तथा (४) वह अपूर्ण इन्द्रियों के कारण सीमित होता है। इन चार दोषों के कारण मनुष्य सर्वव्यापी ज्ञान विषयक पूर्ण सूचना नहीं दे पाता। TO BE CONTINUE….