ऐसे दोषपूर्ण व्यक्तियों द्वारा वैदिक ज्ञान प्रदान नहीं किया जाता। इसे पहले- पहल प्रथम सृष्ट जीव, ब्रह्मा के हृदय में प्रदान किया गया, फिर ब्रह्मा ने इस ज्ञान को अपने पुत्रों तथा शिष्यों को उसी रूप में प्रदान किया, जिस रूप में उन्हें भगवान् से प्राप्त हुआ था। भूमिका 7
Bhagavad Gita In HINDI श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप (भूमिका 7)
भगवान् पूर्ण हैं और उनका प्रकृति के नियमों के वशीभूत होने का प्रश्न ही नहीं उठता। अतएव मनुष्य में इतना समझने की बुद्धि तो होनी ही चाहिए कि भगवान् ही इस ब्रह्माण्ड की सारी वस्तुओं के एकमात्र स्वामी हैं, वे ही आदि स्रष्टा तथा ब्रह्मा के भी सृजनकर्ता हैं। ग्यारहवें अध्याय में भगवान् को प्रपितामह के रूप में सम्बोधित किया गया है, क्योंकि ब्रह्मा को पितामह कहकर सम्बोधित किया गया है, और वे तो इन पितामह के भी स्रष्टा हैं। अतएव किसी को अपने- आपको किसी भी वस्तु का स्वामी होने का दावा नहीं करना चाहिए, उसे केवल उन्हीं वस्तुओं को स्वीकार करना चाहिए, जिन्हें उसके पोषण के लिए भगवान् ने हिस्से में दी है।
Bhagavad Gita In HINDI श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप (भूमिका 7)
भगवान् द्वारा हमारे हिस्से में लिए रखी गई वस्तुओं को किस तरह काम में लाया जाय, इसके अनेक उदाहरण प्राप्त हैं। इसकी भी व्याख्या भगवद्गीता में हुई है। प्रारम्भ में अर्जुन ने निश्चय किया था कि वह कुरुक्षेत्र के युद्ध में नहीं लड़ेगा। यह उसका अपना निर्णय था। अर्जुन ने भगवान् से कहा कि वह अपने ही सम्बन्धियों को मार कर राज्य का भोग नहीं करना चाहता।
यह निर्णय शरीर पर आधारित था, क्योंकि वह अपने-आपको शरीर मान रहा था और अपने भाइयों, भतीजों, सालों, पितामहों आदि को अपने शारीरिक सम्बन्ध या विस्तार के रूप में ले रहा था। अतएव वह अपनी शारीरिक आवश्यकताओं को तुष्ट करना चाह रहा था। भगवान् ने भगवद्गीता का प्रवचन इस दृष्टिकोण को बदलने के लिए ही किया और अन्त में अर्जुन भगवान् के आदेशानुसार युद्ध करने का निश्चय करते हुए कहता है करिष्ये वचनं तव- मैं आपके वचन के अनुसार ही करूँगा।
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Bhagavad Gita In HINDI श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप (भूमिका 7)
इस संसार में मनुष्य बिल्लियों तथा कुत्तों के समान लड़ने के लिए नहीं है। मनुष्यों को मनुष्य-जीवन की महत्ता समझकर सामान्य पशुओं की भाँति आचरण करना बन्द कर देना चाहिए। मनुष्य को अपने जीवन के उद्देश्य को समझना चाहिए और इसका निर्देश सभी वैदिक ग्रंथों में दिया गया है, जिसका सार भगवद्गीता में मिलता है। वैदिक ग्रंथ मनुष्यों के लिए हैं, पशुओं के लिए नहीं।
एक पशु दूसरे पशु का वध करे तो कोई पाप नहीं लगता, लेकिन यदि मनुष्य अपनी अनियन्त्रित स्वादेन्द्रिय की तुष्टि के लिए पशु वध करता है, तो वह प्रकृति के नियम को तोड़ने के लिए उत्तरदायी है। भगवद्गीता में स्पष्ट रूप से प्रकृति के गुणों के अनुसार तीन प्रकार के कर्मों का उल्लेख है- सात्त्विक कर्म, राजसिक कर्म तथा तामसिक कर्म।
Bhagavad Gita In HINDI श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप (भूमिका 7)
इसी प्रकार आहार के भी तीन भेद हैं- सात्त्विक आहार, राजसिक आहार तथा तामसिक आहार। इन सबका विशद वर्णन हुआ है, और यदि हम भगवद्गीता के उपदेशों का ठीक से उपयोग करें तो हमारा सम्पूर्ण जीवन शुद्ध हो जाए और अन्ततः हम अपने गन्तव्य को प्राप्त कर सकेंगे, जो इस भौतिक आकाश से परे है। (यगत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम)।
यह गन्तव्य सनातन आकाश या नित्य चिन्मय आकाश कहलाता है। इस संसार में हम पाते हैं कि प्रत्येक पदार्थ क्षणिक है। यह उत्पन्न होता है, कुछ काल तक रहता है, कुछ गौण वस्तुएँ उत्पन्न करता है, क्षीण होता है और अन्त में लुप्त हो जाता है। भौतिक संसार का यही नियम है, चाहे हम इस शरीर का दृष्टान्त लें, या फल का या किसी अन्य वस्तु का। किन्तु इस क्षणिक संसार से परे एक अन्य संसार है, जिसके विषय में हमें जानकारी है।
उस संसार में अन्य प्रकृति है, जो सनातन है। जीव को भी सनातन बताया गया है और ग्यारहवें अध्याय में भगवान् को भी सनातन बताया गया है। हमारा भगवान् के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है और चूँकि हम सभी गुणात्मक रूप से एक हैं- सनातन धाम, सनातन भगवान् तथा सनातन-जीव-अतएव गीता का सारा अभिप्राय हमारे सनातन धर्म को जागृत करना है, जो कि जीव की शाश्वत वृत्ति है।
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Bhagavad Gita In HINDI श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप (भूमिका 7)
हम अस्थायी रूप से विभिन्न कर्मों में लगे रहते हैं, किन्तु यदि हम इन क्षणिक कर्मों को त्याग कर परमेश्वर द्वारा प्रस्तावित कर्मों को ग्रहण कर लें, तो हमारे ये सारे कर्म शुद्ध हो जाए। यही हमारा शुद्ध जीवन कहलाता है।
परमेश्वर तथा उनका दिव्य धाम, ये दोनों ही सनातन हैं और जीव भी सनातन हैं। सनातन-धाम में परमेश्वर तथा जीव की संयुक्त संगति ही मानव जीवन की सार्थकता है। भगवान् जीवों पर अत्यन्त दयालु रहते हैं, क्योंकि वे उनके आत्मज हैं। भगवान् कृष्ण ने भगवद्गीता में घोषित किया है सर्वयोनिषु… अहं बीजप्रदः पिता – मैं सबका पिता हूँ। निस्सन्देह अपने-अपने कर्मों के अनुसार नाना प्रकार के जीव हैं, लेकिन यहाँ पर कृष्ण कहते हैं कि वे उन सबके पिता हैं।
अतएव भगवान् उन समस्त पतित बद्धजीवों का उद्धार करने तथा उन्हें सनातन धाम वापस बुलाने के लिए अवतरित होते हैं, जिससे सनातन-जीव भगवान् की नित्य संगति में रहकर अपनी सनातन स्थिति को पुनः प्राप्त कर सकें। भगवान् स्वयं नाना अवतारों के रूप में अवतरित होते हैं या फिर अपने विश्वस्त सेवकों को अपने पुत्रों, पार्षदों या आचार्यों के रूप में इन बद्धजीवों का उद्धार करने के लिए भेजते हैं। TO BE CONTINUE….