अतएव सनातन धर्म किसी साम्प्रदायिक धर्म पद्धति का सूचक नहीं है। यह तो नित्य परमेश्वर के साथ नित्य जीवों के नित्य कर्म का सूचक है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, यह जीव के नित्य धर्म (वृत्ति) को बताता है। भूमिका 8
Bhagavad Gita In HINDI श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप (भूमिका 8)
श्रीपाद रामानुजाचार्य ने सनातन शब्द की व्याख्या इस प्रकार की है, “वह, जिसका न आदि है और न अन्त” अतएव जब हम सनातन धर्म के विषय में बातें करते हैं तो हमें श्रीपाद रामानुजाचार्य के प्रमाण के आधार पर यह मान लेना चाहिए कि इसका न आदि है न अन्त।
अंग्रेजी का रिलीजन शब्द सनातन धर्म से थोड़ा भिन्न है। रिलीजन से विश्वास का भाव सूचित होता है और विश्वास परिवर्तित हो सकता है। किसी को एक विशेष विधि में विश्वास हो सकता है और वह इस विश्वास को बदल कर दूसरा ग्रहण कर सकता है, लेकिन सनातन धर्म उस कर्म का सूचक है, जो बदला नहीं जा सकता। उदाहरणार्थ, न तो जल से उसकी तरलता विलग की जा सकती है, न अग्नि से ऊष्मा विलग की जा सकती है, ठीक इसी प्रकार जीव से उसके नित्य कर्म को विलग नहीं किया जा सकता।
Bhagavad Gita In HINDI श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप (भूमिका 8)
सनातन धर्म जीव का शाश्वत अंग है। अतएव जब हम सनातन- धर्म के विषय में बात करते हैं तो हमें श्रीपाद रामानुजाचार्य के प्रमाण को मानना चाहिए कि उसका न तो आदि है न अन्त। जिसका आदि व अन्त न हो, वह साम्प्रदायिक नहीं हो सकता क्योंकि उसे किसी सीमा में नहीं बाँधा जा सकता।
जिनका सम्बन्ध किसी सम्प्रदाय से होगा वे सनातन धर्म को भी साम्प्रदायिक मानने की भूल करेंगे, किन्तु यदि हम इस विषय पर गम्भीरता से विचार करें और आधुनिक विज्ञान के प्रकाश में सोचें तो हम सहज ही देख सकते हैं कि सनातन- धर्म विश्व के समस्त लोगों का ही नहीं अपितु ब्रह्माण्ड के समस्त जीवों का है।
भले ही असनातन धार्मिक विश्वास का मानव इतिहास के पृष्ठों में कोई आदि हो, लेकिन सनातन धर्म के इतिहास का कोई आदि नहीं होता, क्योंकि यह जीवों के साथ शाश्वत चलता रहता है। जहाँ तक जीवों का सम्बन्ध है, प्रामाणिक शास्त्रों का कथन है कि जीव का न तो जन्म होता है, न मृत्यु। गीता में कहा गया है कि जीव न तो कभी जन्मता है, न कभी मरता है।
Bhagavad Gita In HINDI श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप (भूमिका 8)
वह शाश्वत तथा अविनाशी है और इस क्षणभंगुर शरीर के नष्ट होने के बाद भी रहता है। सनातन धर्म के स्वरूप के प्रसंग में हमें धर्म की धारणा को संस्कृत के मूल शब्द के अर्थ से समझना होगा। धर्म का अर्थ है जो पदार्थ विशेष में सदैव रहता है। हम यह निष्कर्ष निकालते हैं कि अग्नि के साथ ऊष्मा तथा प्रकाश सदैव रहते हैं, ऊष्मा व प्रकाश के बिना अग्नि शब्द का कोई अर्थ नहीं होता। इसी प्रकार हमें जीव के उस अनिवार्य अंग को ढूँढना चाहिए, जो उसका चिर सहचर है। यह चिर सहचर उसका शाश्वत गुण है और यह शाश्वत गुण ही उसका नित्य धर्म है।
जब सनातन गोस्वामी ने श्री चैतन्य महाप्रभु से प्रत्येक जीव के स्वरूप के विषय में जिज्ञासा की तो भगवान् ने उत्तर दिया कि जीव का स्वरूप या स्वाभाविक स्थिति भगवान् की सेवा करना है। यदि हम चैतन्य महाप्रभु के इस कथन का विश्लेषण करें तो हम देखेंगे कि एक जीव दूसरे जीव की सेवा में निरन्तर लगा हुआ है।एक जीव दूसरे जीव की सेवा कई रूपों में करता है। ऐसा करके, जीव जीवन का भोग करता है।
Bhagavad Gita In HINDI श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप (भूमिका 8)
निम्न पशु मनुष्यों की सेवा करते हैं जैसे सेवक अपने स्वामी की सेवा करते हैं। एक व्यक्ति ‘अ’ अपने स्वामी ‘ब’ की सेवा करता है, ‘ब’ अपने स्वामी ‘स’ की, ‘स’ अपने स्वामी ‘द’ की। इस प्रकार हम देखते हैं कि एक मित्र दूसरे मित्र की सेवा करता है, माता पुत्र की सेवा करती है, पत्नी पति की सेवा करती है, पति पत्नी की सेवा करता है। यदि हम इसी भावना से खोज करते चलें तो पाएँगे कि समाज में ऐसा एक भी अपवाद नहीं है जिसमें कोई जीव सेवा में न लगा हो।
एक राजनेता जनता के समक्ष अपना घोषणा-पत्र प्रस्तुत करता है ताकि उनको उसकी सेवा करने की क्षमता के विषय में विश्वास दिला सके। फलतः मतदाता उसे यह सोचते हुए अपना बहुमूल्य मत देते हैं कि वह समाज की महत्त्वपूर्ण सेवा करेगा। दुकानदार अपने ग्राहक की सेवा करता है और कारीगर (शिल्पी) पूँजीपतियों की सेवा करते हैं। पूँजीपति अपने परिवार की सेवा करता है और परिवार शाश्वत जीव की शाश्वत सेवा क्षमता से राज्य की सेवा करता है।
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इस प्रकार हम देख सकते हैं कि कोई भी जीव अन्य जीव की सेवा करने से मुक्त नहीं है। अतएव हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि सेवा जीव की चिर सहचरी है और सेवा करना जीव का शाश्वत (सनातन) धर्म है।
तथापि मनुष्य काल तथा परिस्थिति विशेष के प्रसंग में एक विशिष्ट प्रकार की श्रद्धा को अंगीकार करता है और इस प्रकार वह अपने को हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, बौद्ध या किसी अन्य सम्प्रदाय का मानने वाला बताता है। ये सभी उपाधियाँ सनातन धर्म नहीं हैं। एक हिन्दू अपनी श्रद्धा बदल कर मुसलमान बन सकता है, या एक मुसलमान अपनी श्रद्धा बदल कर हिन्दू बन सकता है या कोई ईसाई अपनी श्रद्धा बदल सकता है, इत्यादि।
किन्तु इन सभी परिस्थितियों में धार्मिक श्रद्धा में परिवर्तन होने से अन्यों की सेवा करने का शाश्वत धर्म (वृत्ति) प्रभावित नहीं होता। हिन्दू, मुसलमान या ईसाई समस्त परिस्थितियों में किसी न किसी के सेवक हैं। अतएव किसी विशेष श्रद्धा को अंगीकार करना अपने सनातन धर्म को अंगीकार करना नहीं है। सेवा करना ही सनातन-धर्म है। TO BE CONTINUE….